हुसैन हर सदी की ज़रूरत का नाम है

"हुसैन को सदी की ज़रूरत नहीं, हुसैन हर सदी की ज़रूरत का नाम है" ________________________________________ इमाम हुसैन (अ.स) — हर सदी की ज़रूरत का नाम इतिहास में कुछ शख़्सियतें ऐसी होती हैं, जिनकी मिसाल वक़्त और सदी के बंधनों में नहीं बंधती। उनकी सोच, उनके उसूल और उनकी कुर्बानी हर दौर, हर समाज और हर इंसान के लिए रास्ता दिखाने वाली होती है। हज़रत इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) भी ऐसी ही एक रौशन मिसाल हैं। करबला के मैदान में उनकी दी गई शहादत सिर्फ एक सदी या एक कौम के लिए नहीं थी, बल्कि वो हर युग, हर धर्म और पूरी इंसानियत के लिए हिदायत, हिम्मत और इंसाफ़ का पैग़ाम है। इसीलिए कहना गलत ना होगा : "हुसैन को सदी की ज़रूरत नहीं, हुसैन हर सदी की ज़रूरत का नाम है।" इमाम हुसैन (अ.स) की ज़िन्दगी में अल्लाह की इबादत, इंसानियत को बुलंदी पर लाना, ज़ालिम के खिलाफ़ आवाज़ और हर मज़लूम का साथ देना सबसे अहम उसूल था। यही वजह थी कि जब यज़ीद ने इस्लाम के नाम पर बुराई और अन्याय को बढ़ावा दिया, तो इमाम हुसैन (अ.स) ने उसके खिलाफ़ डटकर खड़े होने का फ़ैसला किया। यज़ीद चाहता था कि इमाम हुसैन (अ.स) उसकी बैअत कर लें और अन्याय को मान लें। लेकिन इमाम हुसैन (अ.स) ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा: मेरे जैसे व्यक्ति, तुझ जैसे व्यक्ति की बैअत नहीं कर सकता।" "जुल्म के आगे झुकना मेरे नाना (पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व) की तालीम नहीं है।" तीन दिन की भूख-प्यास, मासूम बच्चों की शहादत और अपनों की कुर्बानी के बावजूद, इमाम हुसैन (अ.स) ने हक़ और इंसाफ़ के रास्ते को नहीं छोड़ा। आखिरकार, 10 मुहर्रम को करबला की तपती रेत पर वो शहीद हो गए, और उनका पैग़ाम अमर हो गया। हर सदी के लिए हुसैनी पैग़ाम करबला की घटना केवल उस दौर की बात नहीं थी। यह हर सदी, हर समाज और हर इंसान की हकीकत है। दुनिया में जब-जब जुल्म और अत्याचार बढ़ा है, हुसैन (अ.स) का पैग़ाम इंसाफ़ और हक़ की आवाज़ बनकर उभरा है। आज भी जब किसी मज़लूम पर ज़ुल्म होता है, जब समाज में अन्याय बढ़ता है, जब सच्चाई को दबाने की कोशिश होती है — उस वक़्त करबला की मिसाल इंसानों को हिम्मत और हक़ की ताक़त देती है। इसीलिए हुसैन (अ.स) किसी एक सदी या मज़हब के नहीं, बल्कि हर युग, हर इंसान और पूरी इंसानियत की ज़रूरत का नाम हैं। हुसैन (अ.स) की कुर्बानी मज़हब और सीमाओं से ऊपर उठकर पूरी मानवता के लिए रौशनी का चिराग़ है। हुसैन (अ.स) की कुर्बानी को न सिर्फ मुसलमान, बल्कि हर धर्म , समाज और मत के लोगों ने सराहा। महात्मा गांधी ने कहा था: "मैंने इमाम हुसैन (अ.स) से सीखा कि किस तरह जुल्मी हुकूमत के सामने डटकर खड़ा हुआ जाता है। अगर हम हुसैनी रास्ते पर चलें, तो हर देश को आज़ादी मिल सकती है।" "मैंने हुसैन से सीखा कि किस तरह अत्याचारी के सामने डटकर खड़ा हुआ जाता है। मेरी कामयाबी का राज़ करबला के मैदान में है।" सर थॉमस कार्लायल (ईसाई लेखक और दार्शनिक) "हुसैन की शहादत एक महान बलिदान है। उन्होंने दिखा दिया कि सच्चाई के लिए मर जाना बेहतर है, बजाय अन्याय के सामने झुकने के। करबला की घटना हर दौर के लिए इंसानियत का पैग़ाम है।" चार्ल्स डिकन्स (ईसाई लेखक) "अगर हुसैन अपने दोस्तों और परिवार के साथ केवल अपनी भलाई के लिए लड़ते, तो यह बात समझ में आती। लेकिन उन्होंने इंसानियत और न्याय की खातिर अपनी जान दी। उनकी कुर्बानी हर धर्म के मानने वालों के लिए मिसाल है।" निष्कर्ष इमाम हुसैन (अ.स) का पैग़ाम कभी पुराना नहीं होता। ज़ालिम चाहे कोई भी हो और दौर कैसा भी हो — हुसैनी सोच और हक़ के लिए लड़ने की हिम्मत हर सदी में ज़रूरी है। "हुसैन को सदी की ज़रूरत नहीं, हुसैन हर सदी की ज़रूरत का नाम है" — क्योंकि जब-जब ज़ुल्म होगा, करबला की रूह इंसानियत को हक़ और इंसाफ़ के लिए जागने का पैग़ाम देती रहेगी।

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7/7/20251 min read

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