करबला और इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम)
करबला और इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) इस्लाम के इतिहास में करबला की घटना एक ऐसी अमर और दर्दनाक मिसाल है, जिसने पूरी मानवता को अन्याय, अत्याचार और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ डट जाने का पैग़ाम दिया। करबला केवल एक जंग या मैदान नहीं, बल्कि इंसानियत, सच्चाई, इंसाफ और कुर्बानी की वो ज़मीन है, जहाँ इमाम हुसैन (अ.स) ने अपने पूरे ख़ानदान और साथियों के साथ धर्म, इंसानियत और हक़ के लिए अपनी जानों की कुर्बानी दी। इमाम हुसैन (अ.स) इस्लाम के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) के छोटे नवासे थे। उनका जन्म 3 शाबान 4 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में हुआ। उनके पिता हज़रत अली (अ.स) और माता हज़रत फातिमा ज़हरा (स.अ) थीं। इमाम हुसैन (अ.स) ने बचपन में ही अपने नाना हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से इस्लाम की शिक्षाओं को सीखा और एक आदर्श जीवन व्यतीत किया। पैग़म्बर के बाद इस्लामी ख़िलाफ़त धीरे-धीरे राजशाही की ओर बढ़ने लगी। यज़ीद, जो अपने भ्रष्ट आचरण, अन्याय और इस्लाम विरोधी कार्यों के लिए कुख्यात था, जब मुसलमानों का ख़लीफ़ा बना, तो उसने इमाम हुसैन (अ.स) से अपनी बैअत (आज्ञापालन) की माँग की। इमाम हुसैन (अ.स) ने इसे इस्लाम और इंसानियत के ख़िलाफ़ मानते हुए इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, **"मेरे जैसे व्यक्ति, यज़ीद जैसे व्यक्ति की बैअत नहीं कर सकता।"** इसी विरोध की वजह से 61 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स) अपने परिवार और कुछ वफादार साथियों के साथ मक्का से कूफ़ा की ओर रवाना हुए। रास्ते में करबला नामक स्थान पर यज़ीद की फौज ने उनका रास्ता रोक लिया। 7 मुहर्रम से लेकर 10 मुहर्रम तक उन्हें पानी से महरूम कर दिया गया। उनके छोटे बच्चों तक को प्यासा रखा गया। 10 मुहर्रम, जिसे आज 'आशूरा' के नाम से जाना जाता है, के दिन इमाम हुसैन (अ.स) ने अपने 72 साथियों के साथ बहादुरी से यज़ीद की विशाल सेना का मुक़ाबला किया और एक-एक कर सब शहीद हो गए। इमाम हुसैन (अ.स) की शहादत ने पूरी दुनिया को ये सिखाया कि हक़ और सच्चाई की राह में चाहे जितनी भी बड़ी कुर्बानी देनी पड़े, डटकर अन्याय के सामने खड़ा होना चाहिए। उनकी ये कुर्बानी केवल इस्लाम के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए इंसाफ, इंसानियत और आत्मसम्मान की मिसाल है। आज भी करबला और इमाम हुसैन (अ.स) की याद में दुनिया भर के मुसलमान और इंसानियत-पसंद लोग मुहर्रम के महीने में ग़म मनाते हैं और इस बात का इकरार करते हैं कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही इंसान का असली फर्ज़ है। **करबला का पैग़ाम यही है कि कभी भी सच्चाई और इंसानियत के रास्ते से पीछे न हटो, चाहे कितनी भी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।**
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6/26/20251 min read


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